रविवार, 19 सितंबर 2010

अकेली माँ भारती व्यथा सह रही है ||

 अँधेरे  के सौदागर करते हैं 
जहाँ रोशनी की तिजारत ,
डाकू और लुटेरे रखवाले हैं |
वहां क्या दुखड़ा रोना रोज -रोज व्यवस्था का 
देश ही समूचा जब नियति के हवाले है |
अब यहाँ कोई बीमारी से नहीं 
भूख से या फिर हादसों में बेमौत मरते हैं |
जानवरों से तो उनकी दोस्ती है 
वे सिर्फ आम आदमी से डरते हैं |
वैसे तो सब कुछ ठीक -ठाक है ,
महज गंगा उलटी बह रही है |
वे तो मालामाल और खुशहाल हैं ,
अकेली माँ भारती व्यथा सह रही है ||