गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

सुना अप्सराओं का जैसा मनहर अनुपम रूप

सुना अप्सराओं का जैसा मनहर अनुपम रूप /
सुमुखि   तुम भी वैसी ही दिखती हो नवल अनूप/
मोहनी जिस पर सभी मुग्ध हैं,चकित चराचर सृष्टी
इंद्रजाल लगती है सचमुच जिसकी वंकिम दृष्टी /
सौम्य लगा करती जैसे,जाड़ों में कच्ची धूप /
वैसे ही लगता है सुखकर,सुमुखि तुम्हारा रूप/
रूपराशि से बढ़कर धन्ये,सौम्य तुम्हारा शील /
जहाँ भद्रता आश्रय पाती, वर्जित है अश्लील  /
ओ साकार ज्योत्स्ना, जीवन के निर्मल मृदु हास/
ओ प्रतिक्षण जीवंत हो रहे प्रातः के विश्वास  /
विमल ऋचा वेदों की,ओ आगम की गिरा पुनीत /
आकर जीवन में ढालो यह शुचिता का संगीत  //