रविवार, 12 सितंबर 2010

अपनी किस्मत गढ़ना सीखें

आओ मित्रो पढ़ना सीखें
बदहाली से लड़ना सीखें
क्यों हम अब भी जिल्लत ढोयें
किस्मत का दुखड़ा क्यों रोयें
सूरज बने ,रोशनी बाँटें
बेकारी से लड़ना सीखें |
आओ मित्रो पढ़ना  सीखें ||
कब तक यों मजबूर रहेंगे
भूख और अपमान सहेंगे
क्यों मोहताज रहें औरों के
अपनी किस्मत गढ़ना सीखें |
आओ मित्रो पढ़ना सीखें  ||
बदहाली से समझोते को
हम अब क्यों मजबूर रहें
हम हैं सब मर्जी के मालिक
क्यों बंधुआ मजदूर रहें
अपनी पाताली छवि तोड़ें
आसमान पर चढ़ाना सीखें |
आओ मित्रो पढ़ना सीखें  ||

  

हरीभरी धरती का इतना बदतर क्यों कर हाल किया |

कंक्रीट के जंगल उभरे ,बढ़ी यहाँ अनियंत्रित भीड़
बदन हुआ धरती का नंगा ,कहाँ बनायें पक्षी नीड़
चीरहरण होना धरती का हुई आज साधारण बात
अपनी वज्रदेह पर फिर भी सहती वह कितने संघात
इतने उत्पीड़न  सहकर भी जो करती अनगिन उपकार
उसके ही सपूत उससे करते ऐसा गर्हित व्यवहार
दोहन पर ही हमने केवल केन्द्रित रखा समूचा ध्यान
जंगल कब से चीख रहे हैं ,कोई नहीं दे रहा कान
पर्यावरण ले रहा करवट ,पनघट का रूठा पानी
ऋतुएँ लगती हैं परदेशी ,जो कल तक थीं पहचानी
आँगन ,गली ,मोहल्ला ,क़स्बा सबने आज सवाल किया |
हरीभरी धरती का इतना बदतर क्यों कर हाल किया   ||

उनका भारत में कोई स्थान नहीं है | |

आदर्शों की लगा रहे बढ़- चढ़ कर बोली
जिन्हें भारती की गरिमा का ध्यान नहीं है
जो गौरव अनुभव करते जनमत ठुकरा कर
प्रजातंत्र के प्रति जिनका सम्मान नहीं है |
उनका भारत में कोई स्थान नहीं है    ||

संवेदन ,साँसें तक   आयातित हैं जिनकी
अपनी जिनकी कोई एक जुबान नहीं है
मिला रहे पश्चिम के सुर में जो अपना सुर
जिन्हें देश की धड़कन की पहचान नहीं है |
उनका भारत में कोई स्थान नहीं  है    | |

आग लगा कर क्षेत्रवाद की आज देश में
खड़ी कर रहे दीवारें जो हर प्रदेश में
कोशिश जो कर रहे दिलों के बंटवारे की
हिला रहे  हैं   बुनियादें   भाईचारे  की
जिनका संविधान के प्रति ईमान नहीं है |
उनका भारत में कोई स्थान  नहीं है  | |

बोलो क्या माने रखता है उनका जीना

ऊँचे महलों ने जिनको हर बार छला  हो ,
जिन्हें झोंपड़ी में रहने का शाप फला हो |
कमर तोड़ मेहनत करके जो भूखे रहते ,
भोले और भले होकर भी जिल्लत सहते |
मुखिया के घर जिनका गिरवी रखा पसीना ,
बोलो क्या माने रखता है उनका जीना  |
खाट बेचकर खुद जमीन पर जो सोते हों ,
एक घूंट मट्ठे को जिनके शिशु रोते हों |
बचपन में ही जिनकी मधु मुस्कान खो गई ,
जिनकी मंगनी बेकारी के साथ हो गई  |
हुआ बेकशी से हो जिनका छलनी सीना ,
बोलो क्या माने रखता है उनका जीना  |
जो जुबान के रहते अपने होंठ सियें हैं ,
जिसने जाने कितने कडुवे घूंट पिये हैं ,
सूरज होकर निपट अँधेरे में रहते जो ,
मन ही मन में जीने की पीड़ा सहते जो ,
जिन्हें रोज विष का प्याला पड़ता हो पीना |
बोलो क्या माने रखता है उनका जीना   ||