शनिवार, 11 सितंबर 2010

क्या झूठा आशावाद सभी प्रश्नों का हल होगा ?

एक घूंट मट्ठे को बचपन यहाँ तरसता है
आमआदमी की हालत तो बिलकुल खस्ता है
अब मंदिर ,मस्जिद में ही भैरव युद्ध ठन रहा है
यह देश समूचा षड्यंत्रों का केंद्र बन रहा है
अब तुम्ही बताओ प्रभु भला क्या समाधान होगा
हा !कितना और रक्तरंजित विधि का विधान होगा
भले लोग दायित्वों से घबरा कर भागे हैं
राजनीति में अपराधी ही सबसे आगे हैं
रूपया ,रूपवती की घर-घर चर्चा होती है
अच्छाई मारी-मारी फिरती है रोती है
अब असत और सत दोनों में किसका प्राधान्य होगा
बतलाओ हे भगवान कौन-सा मूल्य मान्य होगा
नैतिक मूल्यों का अधपतन अब कितना और बढे
जब भगिनी गलत संबंधों का भाई पर दोष मढ़े
सदाचरण तो अब केवल ग्रंथों में चर्चित है
परहित साधन की चर्चा करना भी वर्जित है
इस दुरवस्था के चलते कैसे स्वर्णिम कल होगा ?
क्या झूठा आशावाद सभी प्रश्नों का हल होगा ???

भूख की आग

क्या जाने वह भला भूख की आग
कभी भाग्य का छल कर ,कभी --
बाहुबल से हड़पा हो जिसने औरों का भाग
क्या जाने वह भला भूख की आग |
पूँजी के अतिशय संकेन्द्रण के उपक्रम में
रोंदा कुछ अर्थपिशाचों ने जनगणमन को ,
अपने हाथों से मानवता को दफना कर
वे दोपाये पशु लगे पूजने जो धन को |
शस्त्रों शास्त्रोंके बल पर न्यायोचित ठहरा
उत्पीड़न को दैवीविधान कह भरमाया ,
 दोनों हाथों में लड्डू ले दानी बनकर
फैलाई जिसने फिर उदारता की माया |
व्रत ,अनशन चाहे भले रहे हों अनुष्ठान
जो भरे पेटवाले लोगों के कौतुक हैं
पर भूख एक नंगी कड़वी सच्चाई है,
जो लोग धकेले गए हाशिये पर उनके
नंगे पांवों में गहरी फटी बिबाई है |
सबसे करके उपवासों की पैरोकारी
खुद छेड़ रहे जो भरे पेट के राग को
क्या जाने वे भला भूख की आग को ||
  

नारी का अवमूल्यन कब तक

मर्दों की शतरंजी दुनिया
मर्द जंहा पर बादशाह है
औरत महज एक प्यादा है,
ये तो केवल आधा सच है
पूरा सच इससे ज्यादा है ,
मर्दों की बीमार नजर में
औरत सिर्फ एक मादा है !
 बेजुवान मिटटी की गुड़िया
बन जीना जिसकी लाचारी |
खटते रहना ,करते रहना
चूल्हा चक्की और बुहारी |
बच्चे जानना ,वंश बढ़ाना
उन्नति के सोपान चढ़ाना
बोझिल कर्तव्यों का बोझा
जिस पर मिल सबने लादा है|
फिर भी मर्दों ने औरत को
मान रखा केवल मादा है|  
जीवन के सागर मंथन में
जिसकी है भूमिका अग्रणी |
मातृशक्ति की मानवता यह
इसीलिये तो हुई चिर ऋणी|
जो विष अमृत अलग छांटती
सुधा सभी के बीच बांटती
हालाहल को खुद पीती है ,
मर-मर कर हर दिन जीती है |        
फिर कैसे वह हुई बुरी है ,
जीवन की जो मूल धुरी है ||