मंगलवार, 16 नवंबर 2010

संकल्प

स्वाधीन बनें,लोकोन्मुख हों,
हर पल अनुशासनबद्ध रहें /
कर्तव्यों और दायित्वों के
पालन के प्रति सनद्ध रहें /
मानवता पोषक मूल्यों का
संकल्पपूर्वक वरण करें /
वैज्ञानिक सोच-समझ रक्खें ,
आदर्शोन्मुख आचरण करें /
हो यही चेष्टा जीवन में
आगे-आगे बढ़ाते जाएँ /
अभुदय और निःश्रेयश के
सोपानों पर चढ़ते जाएँ //

      

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

सुना अप्सराओं का जैसा मनहर अनुपम रूप

सुना अप्सराओं का जैसा मनहर अनुपम रूप /
सुमुखि   तुम भी वैसी ही दिखती हो नवल अनूप/
मोहनी जिस पर सभी मुग्ध हैं,चकित चराचर सृष्टी
इंद्रजाल लगती है सचमुच जिसकी वंकिम दृष्टी /
सौम्य लगा करती जैसे,जाड़ों में कच्ची धूप /
वैसे ही लगता है सुखकर,सुमुखि तुम्हारा रूप/
रूपराशि से बढ़कर धन्ये,सौम्य तुम्हारा शील /
जहाँ भद्रता आश्रय पाती, वर्जित है अश्लील  /
ओ साकार ज्योत्स्ना, जीवन के निर्मल मृदु हास/
ओ प्रतिक्षण जीवंत हो रहे प्रातः के विश्वास  /
विमल ऋचा वेदों की,ओ आगम की गिरा पुनीत /
आकर जीवन में ढालो यह शुचिता का संगीत  //

रविवार, 26 सितंबर 2010

जब बदला नहीं समाज ....

जब बदला नहीं समाज,राम की चरित कथाओं से /
बदलेगा फिर बोलो कैसे गीतों,कविताओं से   / /
जो गिरवी रखकर कलम ,जोड़ते दौलत से यारी/
वे खाक करेंगे आम आदमी की पहरेदारी  / /
जब तक शब्दों के साथ कर्म का योग नहीं होता/
थोथे शब्दों का तब तक कुछ उपयोग नहीं होता//            .
व्यवहारपूत हर शब्द मंत्र जैसा फल देता है /
इसलिए हमारा शास्त्र आचरण पर बल देता है//
जब शब्दों के अनुरूप व्यक्ति के कार्य नहीं होते/
उनके उपदेश आम जन को स्वीकार्य नहीं होते//
हल और कुदाल,हथोड़ों से लिखते हैं जो साहित्य/
उनमें होता अभिव्यक्त हमारे जीवन का लालित्य//
थोथी चर्चा,सेमिनारों से कुछ न प्राप्त होगा /
भैरव श्रम से ही दैन्य भारती का समाप्त होगा//
बदलेगा तभी समाज आचरण का प्राधान्य हो जब/
"श्रम जीवन का आधार बने"यह मूल्य मान्य हो जब// 

रविवार, 19 सितंबर 2010

अकेली माँ भारती व्यथा सह रही है ||

 अँधेरे  के सौदागर करते हैं 
जहाँ रोशनी की तिजारत ,
डाकू और लुटेरे रखवाले हैं |
वहां क्या दुखड़ा रोना रोज -रोज व्यवस्था का 
देश ही समूचा जब नियति के हवाले है |
अब यहाँ कोई बीमारी से नहीं 
भूख से या फिर हादसों में बेमौत मरते हैं |
जानवरों से तो उनकी दोस्ती है 
वे सिर्फ आम आदमी से डरते हैं |
वैसे तो सब कुछ ठीक -ठाक है ,
महज गंगा उलटी बह रही है |
वे तो मालामाल और खुशहाल हैं ,
अकेली माँ भारती व्यथा सह रही है ||    

रविवार, 12 सितंबर 2010

अपनी किस्मत गढ़ना सीखें

आओ मित्रो पढ़ना सीखें
बदहाली से लड़ना सीखें
क्यों हम अब भी जिल्लत ढोयें
किस्मत का दुखड़ा क्यों रोयें
सूरज बने ,रोशनी बाँटें
बेकारी से लड़ना सीखें |
आओ मित्रो पढ़ना  सीखें ||
कब तक यों मजबूर रहेंगे
भूख और अपमान सहेंगे
क्यों मोहताज रहें औरों के
अपनी किस्मत गढ़ना सीखें |
आओ मित्रो पढ़ना सीखें  ||
बदहाली से समझोते को
हम अब क्यों मजबूर रहें
हम हैं सब मर्जी के मालिक
क्यों बंधुआ मजदूर रहें
अपनी पाताली छवि तोड़ें
आसमान पर चढ़ाना सीखें |
आओ मित्रो पढ़ना सीखें  ||

  

हरीभरी धरती का इतना बदतर क्यों कर हाल किया |

कंक्रीट के जंगल उभरे ,बढ़ी यहाँ अनियंत्रित भीड़
बदन हुआ धरती का नंगा ,कहाँ बनायें पक्षी नीड़
चीरहरण होना धरती का हुई आज साधारण बात
अपनी वज्रदेह पर फिर भी सहती वह कितने संघात
इतने उत्पीड़न  सहकर भी जो करती अनगिन उपकार
उसके ही सपूत उससे करते ऐसा गर्हित व्यवहार
दोहन पर ही हमने केवल केन्द्रित रखा समूचा ध्यान
जंगल कब से चीख रहे हैं ,कोई नहीं दे रहा कान
पर्यावरण ले रहा करवट ,पनघट का रूठा पानी
ऋतुएँ लगती हैं परदेशी ,जो कल तक थीं पहचानी
आँगन ,गली ,मोहल्ला ,क़स्बा सबने आज सवाल किया |
हरीभरी धरती का इतना बदतर क्यों कर हाल किया   ||

उनका भारत में कोई स्थान नहीं है | |

आदर्शों की लगा रहे बढ़- चढ़ कर बोली
जिन्हें भारती की गरिमा का ध्यान नहीं है
जो गौरव अनुभव करते जनमत ठुकरा कर
प्रजातंत्र के प्रति जिनका सम्मान नहीं है |
उनका भारत में कोई स्थान नहीं है    ||

संवेदन ,साँसें तक   आयातित हैं जिनकी
अपनी जिनकी कोई एक जुबान नहीं है
मिला रहे पश्चिम के सुर में जो अपना सुर
जिन्हें देश की धड़कन की पहचान नहीं है |
उनका भारत में कोई स्थान नहीं  है    | |

आग लगा कर क्षेत्रवाद की आज देश में
खड़ी कर रहे दीवारें जो हर प्रदेश में
कोशिश जो कर रहे दिलों के बंटवारे की
हिला रहे  हैं   बुनियादें   भाईचारे  की
जिनका संविधान के प्रति ईमान नहीं है |
उनका भारत में कोई स्थान  नहीं है  | |

बोलो क्या माने रखता है उनका जीना

ऊँचे महलों ने जिनको हर बार छला  हो ,
जिन्हें झोंपड़ी में रहने का शाप फला हो |
कमर तोड़ मेहनत करके जो भूखे रहते ,
भोले और भले होकर भी जिल्लत सहते |
मुखिया के घर जिनका गिरवी रखा पसीना ,
बोलो क्या माने रखता है उनका जीना  |
खाट बेचकर खुद जमीन पर जो सोते हों ,
एक घूंट मट्ठे को जिनके शिशु रोते हों |
बचपन में ही जिनकी मधु मुस्कान खो गई ,
जिनकी मंगनी बेकारी के साथ हो गई  |
हुआ बेकशी से हो जिनका छलनी सीना ,
बोलो क्या माने रखता है उनका जीना  |
जो जुबान के रहते अपने होंठ सियें हैं ,
जिसने जाने कितने कडुवे घूंट पिये हैं ,
सूरज होकर निपट अँधेरे में रहते जो ,
मन ही मन में जीने की पीड़ा सहते जो ,
जिन्हें रोज विष का प्याला पड़ता हो पीना |
बोलो क्या माने रखता है उनका जीना   ||     

शनिवार, 11 सितंबर 2010

क्या झूठा आशावाद सभी प्रश्नों का हल होगा ?

एक घूंट मट्ठे को बचपन यहाँ तरसता है
आमआदमी की हालत तो बिलकुल खस्ता है
अब मंदिर ,मस्जिद में ही भैरव युद्ध ठन रहा है
यह देश समूचा षड्यंत्रों का केंद्र बन रहा है
अब तुम्ही बताओ प्रभु भला क्या समाधान होगा
हा !कितना और रक्तरंजित विधि का विधान होगा
भले लोग दायित्वों से घबरा कर भागे हैं
राजनीति में अपराधी ही सबसे आगे हैं
रूपया ,रूपवती की घर-घर चर्चा होती है
अच्छाई मारी-मारी फिरती है रोती है
अब असत और सत दोनों में किसका प्राधान्य होगा
बतलाओ हे भगवान कौन-सा मूल्य मान्य होगा
नैतिक मूल्यों का अधपतन अब कितना और बढे
जब भगिनी गलत संबंधों का भाई पर दोष मढ़े
सदाचरण तो अब केवल ग्रंथों में चर्चित है
परहित साधन की चर्चा करना भी वर्जित है
इस दुरवस्था के चलते कैसे स्वर्णिम कल होगा ?
क्या झूठा आशावाद सभी प्रश्नों का हल होगा ???

भूख की आग

क्या जाने वह भला भूख की आग
कभी भाग्य का छल कर ,कभी --
बाहुबल से हड़पा हो जिसने औरों का भाग
क्या जाने वह भला भूख की आग |
पूँजी के अतिशय संकेन्द्रण के उपक्रम में
रोंदा कुछ अर्थपिशाचों ने जनगणमन को ,
अपने हाथों से मानवता को दफना कर
वे दोपाये पशु लगे पूजने जो धन को |
शस्त्रों शास्त्रोंके बल पर न्यायोचित ठहरा
उत्पीड़न को दैवीविधान कह भरमाया ,
 दोनों हाथों में लड्डू ले दानी बनकर
फैलाई जिसने फिर उदारता की माया |
व्रत ,अनशन चाहे भले रहे हों अनुष्ठान
जो भरे पेटवाले लोगों के कौतुक हैं
पर भूख एक नंगी कड़वी सच्चाई है,
जो लोग धकेले गए हाशिये पर उनके
नंगे पांवों में गहरी फटी बिबाई है |
सबसे करके उपवासों की पैरोकारी
खुद छेड़ रहे जो भरे पेट के राग को
क्या जाने वे भला भूख की आग को ||
  

नारी का अवमूल्यन कब तक

मर्दों की शतरंजी दुनिया
मर्द जंहा पर बादशाह है
औरत महज एक प्यादा है,
ये तो केवल आधा सच है
पूरा सच इससे ज्यादा है ,
मर्दों की बीमार नजर में
औरत सिर्फ एक मादा है !
 बेजुवान मिटटी की गुड़िया
बन जीना जिसकी लाचारी |
खटते रहना ,करते रहना
चूल्हा चक्की और बुहारी |
बच्चे जानना ,वंश बढ़ाना
उन्नति के सोपान चढ़ाना
बोझिल कर्तव्यों का बोझा
जिस पर मिल सबने लादा है|
फिर भी मर्दों ने औरत को
मान रखा केवल मादा है|  
जीवन के सागर मंथन में
जिसकी है भूमिका अग्रणी |
मातृशक्ति की मानवता यह
इसीलिये तो हुई चिर ऋणी|
जो विष अमृत अलग छांटती
सुधा सभी के बीच बांटती
हालाहल को खुद पीती है ,
मर-मर कर हर दिन जीती है |        
फिर कैसे वह हुई बुरी है ,
जीवन की जो मूल धुरी है ||

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

कविता का सृजन .

जब अनुभूतियों के बबंडर उठते हैं
उमड़ता है भावनाओं का ज्वार, मन के समुद्र में
कल्पना की हठीली लहरें मचलती हैं
करने आलिंगन अनंत आकाश का
और छोटा पड़ जाता है मन का आँगन
भाव विलास के लिए
तब शब्दों के धरातल पर थिरकता है मन
उस क्षण होता है किसी संजीविनी कविता का  सृजन .

कविता जिन्दा होने का अहसास है

कविता
मेहनतकश की बुझी हुई आँखों की चमक है
अपनेपन की भीनी - भीनी महक है
कविता
अँधेरे में टिमटिमाते दीये का होसला है
उठ खड़े होने का आह्वान है
काली रात के बीत जाने का ऐलान  है !
कविता
सूरज के धरती पर आने की मुनादी है
जाड़ों में ,गुनगुनी धूप में, उन्मुक्त  टहलने की आजादी है!
कविता
इंसानियत के तिल -तिल मरने की गवाही है
खून से लिखे दुनिया के इतिहास की अमिट स्याही है
कविता उमंग है ,चाहत है , कड़ी भूख प्यास है
कविता जिन्दा होने का अहसास है .

बुधवार, 8 सितंबर 2010

नंदन वन

यों है कहने को नंदन वन
पल्लवित वृक्ष दो चार 
शेष भूखे नंगे बच्चों से क्षुप 
श्रीहीन दीन बालाओं- सी 
मुरझाईं  बेलें भी हैं कुछ 
जिस ओर विहंग दृष्टि डालें 
अधसूखे ठूठ हजार खड़े 
उपवन उद्यान कहो कुछ भी 
दर्शन थोड़े बस नाम बड़े 
यों है कहने को नंदन वन